Tuesday 16 May 2017

मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा का महत्व


भाषा संवाद का एक माध्यम है जिसका उपयोग विचारों के आदान-प्रदान के लिए किया जाता है। ये सामान्यतः मौखिक अथवा लिखित प्रकार की होती है। अमरीका के प्रसिद्ध भाषा-प्रवीण चार्ल्स डोककेट्ट ने मनुष्य भाषा को अन्य प्रकार की भाषाओं अथवा संवाद के प्रकारों से अलग करने के लिए एक उपयोगी सुझाव दिया था। उन्होने मनुष्य भाषा के कुछ प्रमुख लक्षण रेखांकित किए जिनके आधार पर मनुष्य भाषा को अन्य प्रकार की भाषाओं (जैसे जानवरों की भाषा) से विभाजित किया जा सकता है। एक लक्षण जो उन्होने रेखांकित किया वह था कि मनुष्य भाषा को सीखने की आवश्यकता होती है और यह एक व्यक्ति, समाज एवं अन्य मनुष्यों से, उनके मध्य रहने से, उनके साथ संवाद करने इत्यादि से अर्जित करता है। भाषा विशेषज्ञों ने शोध करके यह स्थापित किया है कि कोई भी व्यक्ति जो पहली भाषा अर्जित करता है, उसे अर्जित करने के लिए एक समय सीमा होती है जिसे क्रिटिकल पीरियड कहा जाता है। अर्थात, यदि इस समय सीमा में व्यक्ति किसी कारण से पहली भाषा का ज्ञान अर्जित नहीं कर पाता तो इस अवधि के समाप्त होने के उपरांत वह व्यक्ति कोई भी भाषा सम्पूर्ण कुशलता से अर्जित नहीं कर पाएगा और हमेशा भाषा ज्ञान से हीन ही रह जाएगा। सामान्यतः यह अवधि व्यक्ति के लगभग 12 साल के होने तक मानी जाती है। भाषा विशेषज्ञों के सामने कुछ ऐसे केस भी आए हैं जिनके द्वारा क्रिटिकल पीरियडके सिद्धांत की पुष्टि हुई है। उदाहरण स्वरूप, अमरीका में लॉस एंजिल्स में जीनी नामक एक कन्या का केस देखा गया है। जीनी को 13 वर्ष की उम्र में उसके घर से मुक्त किया गया। उसके माता पिता ने उसे एक अंधेरे कमरे में बांध कर रखा था और उससे किसी प्रकार की कोई बात-चीत नहीं की जाती थी। परिणाम स्वरूप जीनी कुछ शब्दों के अतिरिक्त कुछ बोल नहीं सकती थी। जब उसे भाषा ज्ञान दिया भी गया तब भी वह कुछ शब्द ही सीख पायी और वाक्य बनाना उसके लिए कभी संभव नहीं हो सका। उसके दिमाग पर शोध करने पर यह ज्ञात हुआ की उसके दिमाग का बायाँ भाग जो भाषा ज्ञान के लिए प्रयोग होता है, वह उचित प्रकार से विकसित ही नहीं हो पाया था और क्यूंकि वह अब लगभग 12 साल से ऊपर हो चुकी थी, बाएँ भाग का विकास अब संभव नहीं हो पा रहा था, अतः उसका भाषा ज्ञान भी विकसित नहीं हो सका। इस उदाहरण से इस बात की भी पुष्टि होती है कि भाषा ज्ञान के लिए (कम से कम पहली भाषा के विकास के लिए) समाज में सामान्य रूप से रहना, आपस में सामान्य रूप से वार्तालाप करना इत्यादि अत्यंत आवश्यक है। इस सामान्यता के अभाव में भाषा के सम्पूर्ण विकास की संभावना न्यूनतम हो जाती है। इसके साथ ही यह भी अत्यंत आवश्यक है कि यह सामान्यता हर बच्चे को कम से कम 12-13 वर्ष की आयु तक प्राप्त हो।

यह समझने के उपरांत कि भाषा क्या होती है तथा उस का ज्ञान किस प्रकार प्राप्त होता है, अब मातृभाषा, उसके ज्ञान और शिक्षा में उसके महत्व पर कुछ विस्तृत चर्चा करना उपयुक्त होगा। साधारण शब्दों में, मातृभाषा उसे कह सकते हैं जिसका उपयोग एक व्यक्ति के घर में सामान्य वार्तालाप में किया जाता हो। अतः कोई भी बच्चा सबसे पहले अपनी मातृभाषा के ही संपर्क में आता है और सबसे पहले उसे ही अर्जित करता है। मातृभाषा को अर्जित करना किसी भी बच्चे के लिए एक स्वाभाविक क्रिया होती है। कम से कम मौखिक स्तर पर मातृभाषा एक व्यक्ति द्वारा सबसे पहले और बिना किसी अतिरिक्त परिश्रम के अर्जित की जाती है। कोई भी व्यक्ति अपनी मातृभाषा में संवाद करने में अथवा उसका उपयोग करने में सबसे अधिक आश्वस्त महसूस करता है। इससे भी अधिकतर महत्व की बात यह है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी भाषा में कितना भी प्रवीण क्यों ना हो, वह साधारणतः अपनी मातृभाषा में ही सोचता है।

यदि हम किसी प्रकार के भी ज्ञान अर्जन की बात करें तो उसे दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। इसका विस्तार मैं एक उदाहरण के द्वारा करना चाहूंगी। कल्पना कीजिये कि आपको किसी विषय, जैसे कि, समाज शास्त्र का ज्ञान अर्जित करना है। यह ज्ञान अर्जित करने के लिए आपको इस विषय का मूल ज्ञान अर्जित करना होगा। परंतु उससे पूर्व इस विषय का मूल ज्ञान अर्जित करने के लिए आपके पास उस भाषा का ज्ञान होना अनिवार्य है जिस भाषा में यह मूल ज्ञान आप तक पहुंचेगा। यदि आपको इस मूल ज्ञान को कुशलता से अर्जित करना है तो यह अनिवार्य हो जाता है कि जिस भाषा में यह मूल ज्ञान आपको प्रस्तुत कराया जाये, उस भाषा में आप प्रवीण हों ताकि आपका सारा समय भाषा को समझने में ही न व्यतीत हो जाये। सामान्यतः हमारी मातृभाषा ही वह भाषा होती है जिसमें हमें अधिकतम प्रवीणता प्राप्त होती है। अतः मातृभाषा में शिक्षा का महत्व स्वतः ही प्रतीत है।

अब एक दूसरे दृष्टिकोण से सोचने का प्रयास करते हैं। कई बार खासकर भारत में यह देखा गया है कि बहुत से लोग अंग्रेज़ी भाषा में अपने विचारों को व्यक्त करने में सबसे ज़्यादा आश्वस्त महसूस करते हैं, हालांकि अंग्रेज़ी हमारी मातृभाषा नहीं है। इसका कारण यह हो सकता है कि इन व्यक्तियों ने अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान इतने कुशल रूप से अर्जित किया है कि वह सबसे ज़्यादा आश्वस्त इस भाषा में महसूस करते हैं। कुशल रूप से ज्ञान अर्जित करने के बाद उनके आश्वस्त होने का एक और कारण यह भी हो सकता है कि अंग्रेज़ी भाषा का अधिकतम उपयोग करने के कारण अब वह उसमें ही अधिक आश्वस्त महसूस करते हों। अगर हम कुछ और गंभीरता से विचार करें तो हमें यह स्पष्ट हो जाएगा कि किसी अन्य भाषा में प्रवीणता प्राप्त करने के लिए भी मातृभाषा में शुरुआती शिक्षा का ही महत्व है। क्योंकि यह स्पष्ट है कि सबसे पहले कोई भी व्यक्ति मातृभाषा से ही संपर्क में आता है, अतः दूसरी कोई भी भाषा अर्जित करने के लिए उसे अतिरिक्त परिश्रम करना पड़ता है, इसलिए यह भी स्पष्ट है कि दूसरी भाषा अर्जित करने के लिए अथवा उसको सबसे पहले समझने के लिए मातृभाषा का ही उपयोग किया जाएगा। अतः शिक्षा के विषय पर जो भी शोध हुए हैं उनमें भी ये ही सामने आया है की कम से कम शुरुआती शिक्षा के स्तर पर वही शिक्षा प्रणाली कारगर है जो मातृभाषा के माध्यम से अन्य विषयों (कम से कम दूसरी भाषाओं का ज्ञान) का ज्ञान प्रदान करे। इस प्रकार कम से कम प्राथमिक शिक्षा के लिए मातृभाषा का उपयोग अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है।

इसके अतिरिक्त भी भारत जैसे देश में, जहां अत्यधिक लोग बहुभाषी हैं एवं जहां हर प्रांत में एक अलग भाषा बोली जाती है, वहाँ मातृभाषा का शिक्षा प्रणाली में महत्व स्वतः ही बढ़ जाता है। इसे भी एक उदाहरण के द्वारा समझाने का मेरा प्रयत्न है। एक बहुभाषी देश में कार्य करने के लिए दो प्रान्तों के लोगों के बीच में एक ऐसी भाषा का होना आवश्यक है जो दोनों को अच्छे प्रकार से ज्ञात हो। इस दूसरी भाषा को कोई भी छात्र सुचारु रूप से तभी सीख पाएगा जब उस भाषा की शिक्षा मातृभाषा के उपयोग से प्रदान की जाये न कि छात्रों को केवल रटने पर मजबूर किया जाये। अतः मातृभाषा में कम से कम प्राथमिक शिक्षा के विकास से ही इस बहुभाषी देश को एक धागे में पिरो के रखा जा सकता है। जब तक मातृभाषा का उपयोग शिक्षा प्रणाली में सुचारु रूप से नहीं होगा तब तक अन्य किसी भाषा या विषय का ज्ञान भी सुचारु रूप से प्रदान करना संभव नहीं हो पाएगा। जिस प्रकार एक कमज़ोर नींव पर खड़ी इमारत अत्यधिक समय तक नहीं टिक सकती, उसी प्रकार मातृभाषा को महत्व न देकर यदि किसी अन्य भाषा के द्वारा शिक्षा अथवा दूसरी भाषाओं का ज्ञान प्रदान किया गया तो वह शिक्षा केवल ऊपरी स्तर तक ही सीमित रह जाएगी और कोई भी छात्र सम्पूर्ण रूप से अपने विचारों को विकसित एवं प्रसारित नहीं कर पाएगा।

एक और गौर करने वाली बात यह भी है कि भारत में आज भी केवल 10 प्रतिशत लोग ही अंग्रेज़ीभाषी हैं। इसके अतिरिक्त 30 से 40 प्रतिशत लोग हिंदीभाषी हैं (इनकी मातृभाषा हिन्दी ही है)। अन्य लोग अपनी-अपनी मातृभाषा (जो कि उनके प्रांत में बोली जाती है) का ही उपयोग करते हैं। अतः शिक्षा को सब तक पहुंचाने के लिए यह अनिवार्य ही हो जाता है कि मातृभाषा का प्रयोग शिक्षा प्रणाली में अधिकतम हो और मातृभाषा के माध्यम से उच्चतम कोटि की शिक्षा प्रदान की जाये।

अंततः जबकि मातृभाषा का शिक्षा में महत्व पूर्णतः सिध्ध हो चुका है, तथापि मैं यह ज़रूर कहना चाहूंगी कि केवल मातृभाषा तक सीमित रह जाना भी सही नहीं होगा। एक व्यक्ति के पूर्ण विकास के लिए और इस देश के विकास के लिए ऐसी भाषाओं के ज्ञान को भी प्रोत्साहित करना अत्यावश्यक है जो कि पूरे विश्व में मान्य हों (जैसे कि अंग्रेज़ी, जो विश्व में अधिकतम रूप से मान्य है), और जिनके उपयोग से हर भारतवासी देश-विदेश में सफलता प्राप्त कर सके।

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