Thursday, 22 September 2016

नामुमकिन


जहाँ मौत आंकड़ों का एक अनंत सिलसिला बस हो

जहाँ ज़िंदगी सिफर की क़ैद से निकलने की बस तमन्ना ही करती हो

जहाँ परचमों की उम्र लंबी करते करते

जाने कितनी ही साँसों की उम्र रह गयी बस चुनिन्दा हो

जहाँ हर आवाज़ कुछ कहने की जल्दी में हो

जहाँ हर इक सोच खुद से ही अजनबी सी हो

जहाँ ज़िंदगी पाना इतना आसां हो जाये

कि ज़िंदा रह पाना उतना ही मुश्किल हो

जहाँ सड़कों पे चलने वाला इंसान भी न कहला पाये

और महलों में रहने वाला भगवान से भी कुछ ज़्यादा ही हो

जहाँ तदबीर के अनगिनत लम्हे मिलकर भी

तकदीर के इक लम्हे के सामने बारहा शर्मिंदा ही हों

जहाँ मुसलसल मौत ज़िंदगी की तलाश में हो

और ज़िंदगी ऐसी हो कि हर पल मौत के सुकून को तरसे

जहाँ मिट्टी पर खिंची लकीरें तो बहुत मायने रखती हों

उसी मिट्टी से बने इंसान ही बस बेमायने हों

ऐसे इस जहाँ में हम सांसें लेते तो हैं पर हैं क्या ज़िंदा भी ?

इस सवाल का जवाब खोज पाना दिन ब दिन शायद और ज़्यादा नामुमकिन सा हो

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