“रुख्सार! रुख्सार!” बारह वर्षीय रशीदा हाँफती हुई, अपने घर
की ओर दौड़ रही थी और ज़ोर ज़ोर से अपनी बड़ी बहन को पुकार रही थी।
“क्या हुआ? बांवरी
हो गयी है क्या? इतनी ज़ोर-ज़ोर से क्यूँ चिल्ला रही है?”
रुख्सार ने कुछ चिंतित स्वर में पूछा।
रशीदा हाँफते हुए, आतंकित स्वर
में बोली, “वो आ रहे हैं.....वो आ रहे हैं”....
ये चार शब्द सुनकर सोलह
वर्षीय रुख्सार स्तब्ध रह गयी। कुछ क्षणों के लिए वह जैसे सुन्न हो गयी हो। उसके
मुंह से कोई आवाज़ नहीं निकली। फिर अकस्मात शायद उसको इस बात की स्मृति हो आई कि उसके
पास अब ज़्यादा वक्त नहीं है। यह सोचकर वह अपने छोटे से घर के बावरचीखाने कि ओर
भागी, जहां उसकी अम्मी खाना पका रही थी। उसने अम्मी को पूरी बात का
संक्षिप्त वर्णन दिया और जल्दी जल्दी सामान बांधने लग गयी। वह इस बात का खास ख़याल
रख रही थी कि घर में किसी से भी संबधित कोई भी ज़रूरी दस्तावेज़ न पीछे छूट जाये। वह
यह सोचकर भी कांप जाती थी कि ऐसा होने पर क्या हो सकता था, शायद वे
मरे हुए घोषित कर दिये जाएँ, या यह भी माना जा सकता था कि वे कभी पैदा ही नहीं
हुए थे, या कि वो इस मुल्क के रहवासी ही नहीं है, या जाने
क्या क्या। वह इसकी कल्पना भी नहीं करना चाहती थी।
इसी बीच अम्मी घबराहट में
अपने पति और बेटे को फोन मिलाये जा रही थी, जो कुछ काम से घर के बाहर गए थे। पूरा परिवार आजकल
बहुत ही खुश था। त्योहारों का मौसम जो शुरू हो गया था। रुखसार का भाई साहिर, एक आला
दर्ज़े का कलाकार था। वह स्थानीय नाटक मंडली का हिस्सा था, जो कि
मुहल्ले के कुछ युवाओं और युवतियों ने मिलकर बनाई थी। वह जीविका हेतु गलियों और
नुक्कड़ों पे नाटकों का प्रदर्शन किया करते थे। जब दीवाली नज़दीक आती थी तो वे अपने
मुहल्ले और आस-पास के मुहल्लों में राम-लीला का नाटकीकरण किया करते थे। उस समय
साहिर की रोज़ की कमाई दोगुनी हो जाया करती थी।
राम लीला में साहिर हमेशा
रावण की भूमिका ही निभाता था। इसका एक कारण तो यह था कि अपने अभिनय की कला को
पूर्ण रूप से निखारने में और प्रदर्शित करने में, उसे रावण के पात्र को
निभाने से अत्यंत सहायता मिलती थी। मगर इससे अधिक महत्वपूर्ण कारण कुछ और था।
साहिर हमेशा से ही रावण के किरदार से बहुत प्रभावित था। उसे रावण के किरदार की
अनेक खूबियों के प्रति आकर्षण था। वह उसके अतुल्य ज्ञान, बल और
पराक्रम, तथा उसकी ईमानदारी और प्रामाणिकता की बहुत कद्र करता था। ये ऐसे
गुण थे जो उसने मौत के डर से भी कभी नहीं त्यागे। वह इस बात से अत्यंत प्रभावित था
कि रावण ने भीड़ का हिस्सा न बनकर उससे अलग खड़े रहने की हिम्मत दिखाई। वह उसकी
क्षमा कर देने की असीमित शक्ति से प्रभावित था। एक बार नहीं बल्कि हर साल वह जलाए
जाने के लिए अपना सीना तान के तैयार हो जाता था। और हर बार कथाकथित ‘अच्छाई
की बुराई पर विजय’ के प्रतीक के रूप में जला दिये जाने के बाद भी, इस
बेनाम और बेचहरा भीड़ को माफ कर देता था, शायद इसलिए कि वह जानता था कि ये सब लोग दिल के बुरे
नहीं, केवल पथभ्रष्ट थे।
साहिर के अब्बा पास ही एक
निर्माण स्थल पर कार्यरत थे। वह निर्माण स्थल उनके घर के पास तो था ही पर इस देश
के सबसे ‘योग्य और काबिल’ व्यक्ति के आलिशान घर के भी बहुत करीब था। यह
व्यक्ति इस देश के सभी मनुष्यों में श्रेष्ठतम था। अब्बा ने एक बार सोचा था कि
साहिर का नाम बदल के ‘मुकेश’ रख दें। उन्हें लगा था कि शायद सारा जादू इस नाम में
ही है। जैसे कि ये नाम ही उनकी सारी मुश्किलों को दूर करने का एकमात्र उपाय है।
उन्हे लगा था कि शायद इस देश का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति होने के लिए ये नाम होना
सबसे ज़रूरी था। साहिर का नाम, हालांकि, साहिर ही रहा। पर आज भी अब्बा को ये खयाल अक्सर आता
था कि क्या ‘मुकेश’ नाम के व्यक्तियों को भी अपने ज़िंदा होने का अथवा
अपने इंसान होने का प्रमाण बार बार देते रहना पड़ता होगा, सिर्फ
इसलिए ताकि वो केवल दो घड़ी चैन से सांस ले सकें?
अम्मी के फोन के बाद अब्बा
और साहिर तुरंत ही घर आ गए थे। फिर भी, उनको पहुँचने में इतनी देर ज़रूर हो गयी थी कि
उन्होने अम्मी, रुखसार और रशीदा को अपने गिरा दिये गए घर के मलवे पे
खड़ा हुआ पाया। रुखसार ने सभी दस्तावेज़ कसके अपने हाथों में जकड़े हुए थे, मानो वे
दस्तावेज़ ही उनके जीवन का आधार हों। रशीदा अपनी एकमात्र गुड़िया को पकड़े खड़ी थी, जो तब
से उसके पास थी जब उसकी आयु तीन वर्ष की थी। अम्मी घर के इकलौते पलंग के मलवे पर
बैठी हुई थी।
जैसे ही सभी घर मलवे में
परिवर्तित हो गए, सभी परिवारों ने अपने ‘नए’ घरों की
ओर चलना शुरू कर दिया। शासकीय दृष्टिकोण से अगले दो बरस तक ये तम्बू ही, जो कि
शहर के सबसे बड़े कचरे के ढेर के पास वाली खाली ज़मीन पर गाढ़े गए थे, उनका घर
होने वाले थे।
साधारणतः यह प्रतीत हो सकता
है कि इस समय इन लोगों के दुख की कोई सीमा नहीं होगी। पर सभी, शून्य
चेहरों से, चुपचाप, चलते चले जा रहे थे। उनकी आँखों में न तो आँसू ही थे, न ही
होंठों पे कोई शिकायत। पर हाँ, चलते समय उनका सिर ऊंचा और सीना ताना हुआ था।
जब वे अपने नए ‘घर’ में
पहुंचे, तो रुखसार ने दस्तावेज़ों को संभाल कर रख देने से पहले यह जांच
लेना बेहतर समझा कि सभी दस्तावेज़ पूरे हैं कि नहीं। उसके मुंह से दहशत भरी एक चीख
निकली जब उसने पाया कि उसके अब्बा का ‘बुनियादी’ कार्ड दस्तावेज़ों में नहीं था।
इस कार्ड को ‘बुनियादी’ कार्ड
इसलिए कहा जाता था क्यूंकि आपके अस्तित्व की बुनियाद इस बात पर टिकी हुई थी कि आपके
पास यह कार्ड है कि नहीं। इसकी गैर-मौजूदगी में आपको राशन की दुकान पर राशन दिये
जाने से इंकार किया जा सकता था, आपको अपना घर, बिजली, पानी, फोन के कनैक्शन इत्यादि, कुछ भी
नहीं मिल सकते थे। आप काम नहीं कर सकते थे, बैंक में खाता नहीं खुलवा सकते थे, यहाँ तक
कि अस्पताल में ईलाज भी नहीं करवा सकते थे। वास्तव में, आपको
ज़िंदा इन्सानों की श्रेणी से निष्कासित कर दिया जाता था। आप अब इस देश के 120 करोड़
लोगों में से एक नहीं थे। वैसे भी आपको कभी इंसान तो नहीं ही माना गया था, अब सांस
लेते हुए गैर-इन्सानों में भी आपकी गिनती नहीं हो सकती थी।
इसके बाद सालों-साल संघर्ष
जारी रहा। इस बात के लिए संघर्ष की अब्बा को फिर से इन्सानों में शामिल कर लिया
जाए। कानूनी या गैर-कानूनी, किसी भी तरीके से ये नहीं हो सका।
तथापि, सालों
बाद, आज भी अब्बा की सांसें चल रही हैं। उन्होने एक नयी पहचान अपना ली
है – एक प्रेत-आत्मा की, एक ऐसी प्रेत-आत्मा जो आँखों से तो सबको दिखती हैं
पर दिमाग में दर्ज नहीं की जाती। इस नयी पहचान के साथ सांस लेने वाले वे अकेले
नहीं है। इस बस्ती में बहुत से ऐसे लोग हैं। दो साल कब खतम हुए इन्हे अब तो ये याद
भी नहीं है। इसी तंबुओं की बस्ती को इन सब ने अपना घर मान लिया है। और कहीं घर
दिये जाने की आशा तो उन्हे नहीं रही, पर हाँ, उनको ये ज़रूरी लगा कि वो इस बस्ती को एक नाम और
पहचान प्रदान करें। तो अब ये बस्ती ‘प्रेत-आत्माओं की बस्ती’ के नाम
से मशहूर है।
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