Wednesday, 17 January 2018

पर्यावरण संरक्षण एवं मानव अस्तित्व


पृथ्वी इस ब्रह्मांड के नौ ग्रहों में से एक है। पृथ्वी ही केवल एक ऐसा गृह भी है जिस पर जीवन की संभावना भी है। इसका कारण यह है कि पृथ्वी पर जीवन कि संभावना को जन्म देने वाला एक ऐसा तत्त्व अनुकूल मात्रा में मौजूद है जो बाकी ग्रहों पर नहीं है। वह तत्त्व है पर्यावरण। अतः यह स्वयं ही सिध्ध हो जाता है कि मानव जीवन के अस्तित्व अथवा पृथ्वी पर जन्म लेने वाले किसी भी प्राणी के जीवन के अस्तित्व का आधार पर्यावरण ही है।

महात्मा गांधी ने कहा था – ‘Earth provides enough to satisfy every man’s need but not every man’s greed.’ अर्थात पृथ्वी के साधन हर एक मानव की जरूरतों के लिए तो पर्याप्त हैं किन्तु हर एक मानव के लालच के लिए नहीं। यह कथन हम सब ने अनेकों बार सुना तो होगा पर कदाचित इस पर गंभीरता से विचार हममें से कुछ ही ने किया होगा। इसी कथन की महत्ता को मैं एक कहानी द्वारा उजागर करना चाहूंगी। यह कहानी मुंबई में स्थापित एक संस्था – आवेही आबेकस प्रोजेक्ट द्वारा प्रकाशित एक अनुपूरक पाठ्यक्रम – संगति में प्रकाशित हुई है। संगति पाठ्यक्रम मुंबई के सभी म्यूनिसिपल पाठशालाओं में कक्षा पाँच से सात तक के विद्यार्थियों को पढ़ाया जाता है। यह कहानी कक्षा सात में पढ़ाये जाने वाले पाठ्यक्रम बदलाव को समझना का हिस्सा है।

कहानी कुछ इस प्रकार से है:

“एक परी कुछ बच्चों के सामने आती है और उन्हें बोलती है कि वे उन सभी वस्तुओं की एक सूची बनाएँ जो वो चाहते हैं कि उनके पास हों। परी वो सभी वस्तुएँ उन सब को देने का वचन देती है। वह केवल एक ही शर्त रखती है कि जो चीज़ें बच्चे अपनी सूची में लिखेंगे वह सभी चीज़ें दुनिया के सभी बच्चों को उपलब्ध करवाई जाएंगी। वह बच्चों को इस बात को ध्यान में रखते हुए ही अपनी-अपनी सूची बनाने को कहती है।

सब बच्चे परी की बात सुनकर खुशी से झूम उठते हैं। उनको परी की चेतावनी अथवा शर्त के विषय में कुछ ध्यान नहीं रहता। वे अपनी-अपनी सूची बनाने में लग जाते हैं। जब सब बच्चे अपनी-अपनी सूची बना कर परी को दे देते हैं तो परी उन सबको मिलाकर एक बड़ी-सी सूची का निर्माण करती है। वह सूची कितनी बड़ी होती है इसका तो व्याख्यान करना भी संभव नहीं है, तथापि उस सूची में किन-किन वस्तुओं का उल्लेख होता है, इसका अनुमान फिर भी लगाया जा सकता है। सभी बच्चे उसमें ढेरों चीज़ें लिखते हैं जैसे कि उनके लिए बड़े-बड़े महल जैसे मकान, उनमें दुनिया की सभी सुविधाएं जैसे फ्रिज, टीवी, एसी इत्यादि, नवीनतम कम्प्युटर जिनमें सभी नयी से नयी गेम्स हों और दुनिया भर का ज्ञान सीमित हो ताकि उन्हें कभी पढ्न न पढे, बड़ी बड़ी गाड़ियाँ, मोबाइल फोन, दुनिया भर का स्वादिष्ट खाना, बेहतरीन कपड़े, ढेरों किताबें, हर प्रकार की विडियो गेम्स तथा अन्य खिलौने, और जाने क्या क्या।

इस लंबी सी सूची को देखकर परी चिंतित हो जाती है। कुछ देर सोचने के पश्चात वो बच्चों को बोलती है कि वह उनकी मनचाही वस्तुएँ उन्हे नहीं दे सकती। यह सुनकर बच्चे क्रोधित हो जाते हैं और चिल्लाने लगते हैं। वे परी से कहते हैं कि उसने उन्हें वे वस्तुएँ देने का वचन दिया था और वह अब उस वचन को तोड़ नहीं सकती।

तब परी उन्हें याद दिलाती है कि उसने वचन देने के साथ-साथ एक शर्त भी रखी थी, जिसके विषय में शायद सभी बच्चे भूल गए थे। वह कहती है कि ये सभी वस्तुएँ वो दुनिया के सभी बच्चों को उपलब्ध नहीं करवा सकती है क्यूंकी इन वस्तुओं को जन्म देने वाले साधन सीमित हैं, और इसी कारण से वह ये वस्तुएँ उन्हें भी नहीं दे सकती।  पर यदि बच्चे चाहें तो कुछ चुनिन्दा बच्चों को वह ज़रूर ये सभी वस्तुएँ दे सकती है। यह सुनकर बच्चे एकदम इंकार कर देते हैं और एक नयी सूची बनाने में लग जाते हैं, जो वो इस प्रकार बनाते हैं कि सबकी जरूरतें भी पूरी हो जाएँ और परी के लिए यह वस्तुएँ सबको उपलब्ध करवाना भी साध्य हो सके।“

यदि हम थोड़ी सी भी गहनता से विचार करेंगे तो इस छोटी-सी कहानी से हमें बहुत बड़ी सीख मिल सकती है। यूं तो बड़े होते होते शायद हमारी सोच इन बच्चों से बिलग हो जाती ही। वो इस तरह कि बड़े होते होते शायद हमें इस बाद से फरक नहीं पड़ता कि किसी दूसरे को कुछ मिल रहा है कि नहीं। हमें केवल इसी बात से सरोकार रह जाता है कि हमें क्या, कितना, और कितनी जल्दी मिल सकता है। यदि हमें बच्चों की तरह यह बोला जाये कि कुछ ही लोगों को ये सारी वस्तुएँ उपलब्ध हो पाएँगी तो हम शायद इन बच्चों की तरह प्रतिकृया न दें। इसके विपरीत हमारे बीच गुट बनना शुरू हो जाएँगे जिसमें जो अधिक शक्तिशाली होंगे वो खुद को उस स्थिति में स्थापित कर लेंगे जिसमे सबकुछ उन्हे ही मिले और जो कम शक्तिशाली होंगे वो जीवन की मामूली से मामूली जरूरतों से भी महरूम ही रह जाएँगे। हमारे समाज में शायद अमीर और गरीब गुटों की संरचना भी हमारी इसी विचारधारा के चलते ही हुई है।

आजकल के पूंजीवादी विचारधारा पर केन्द्रित समाज में हमने अनेकों बार यह सुना होगा कि आम इंसान तक विकास के लाभों को पहुंचाने के लिए केवल इतना ही आवश्यक है कि हम वृद्धधि दर को अधिक से अधिक बढ़ाएँ ताकि इसका अधिक से अधिक लाभ आम इंसान तक पहुँच सके। इस विचारधारा पर चलते-चलते हम कहीं न कहीं यह भूल गए हैं कि वृद्धधि दर को बढ़ाने के लिए और विकास के मार्ग पर चलने के लिए जिन साधनों का उपयोग होगा वे सभी साधन इस पृथ्वी तथा उसके पर्यावरण से ही उपलब्ध होंगे, और ये सभी साधन असीमित रूप से उपलब्ध नहीं हो सकते। ये सभी साधन एक सीमित रूप से ही उपलब्ध हैं और इसी कारणवश इनका उपयोग करते समय हमें इस बात का अधिकतम ध्यान रखने की आवश्यकता है।

प्राकृतिक संसाधनों के प्रकारों के विषय में चर्चा करते समय हम इन्हें सामान्यतः दो वर्गों में बांटते हैं – नवीकरणीय संसाधन और गैर-नवीकरणीय संसाधन। यह वर्गीकरण करते समय भी कदाचित हमें इस बात का इतना ध्यान नहीं रहता कि नवीकरणीय संसाधन भी असीमित नहीं है। उदाहरण के तौर पे – जल। जबकि करीब 70% पृथ्वी पानी से ढकी हुई है, किन्तु इसमें से केवल 2.5% पानी ही ताज़ा पानी है। बाकी सब पानी खारे पानी के रूप में समुद्र में मौजूद है। इस 2.5% ताज़े पानी में से भी केवल 1% पानी ही आसानी से हमारी जरूरतों के लिए उपलब्ध है। खारे पानी को पीने के योग्य बनाया जा सकता है किन्तु यह एक बहुत ही अप्रभावी प्रक्रिया है, विश्व की भारी जनसंख्या को ध्यान में रखते हुए। यदि हम ये भी मान लें कि भविष्य में, तकनीकी विकास के कारण यह प्रक्रिया प्रभावी हो जाएगी फिर भी, जिस स्तर पर हम पानी को प्रदूषित कर रहें हैं, उस स्तर पर यह संभावना बहुत ही दूरगामी प्रतीत हो रही है। इसके अतिरिक्त, भूजल के स्तर में निरंतर गिरावट, पेय जल की प्राप्ति में शीघ्रता से बढ़ती हुई समस्याएं, ताज़ा पानी के साधनों का सीमित होना, और जो साधन उपलब्ध हैं उनकी उपलब्धि एवं वितरण में असमानता इत्यादि, ये सभी ऐसी समस्याएं हैं जो विश्व भर को जटिलता से घेरे हुए हैं।

पानी से निकलकर थोड़ा सा पेड़ों की ओर अग्रसर होते हैं। विश्व बैंक से प्राप्त जानकारी के अनुसार 2015 में विश्व का 30.82% क्षेत्रफल जंगलों से ढका था। 1990 में ये क्षेत्रफल 31.80% था। भारत में ये फीसद 2015 में 23.8% और 1990 में 21.5% थीं। यद्यपि भारत में यह क्षेत्रफल 1990 की अपेक्षा बढ़ा है, किन्तु विश्व में इसकी प्रतिशत कम हुई है। इसके अतिरिक्त जो क्षेत्रफल जंगलों से ढका है, उसकी गुणवत्ता के विषय में भी ठीक से कह पाना कठिन है। वर्ल्ड रेसोरसेस इंस्टीट्यूट के अनुसार विश्व के 80% प्राकृतिक जंगल नष्ट हो चुके हैं। खाद्य और कृषि संगठन से प्राप्त जानकारी के अनुसार 7.3 मिल्यन हैकटैर के बराबर जंगल, जो कि पनामा देश के पूरे क्षेत्रफल के बराबर है, प्रति वर्ष नष्ट हो रहे हैं। हालांकि विश्व भर में वृक्षारोपण के प्रयासों में भी वृद्धि हुई है, फिर भी, ये नवीन स्थापित जंगल प्राकृतिक जंगलों की जगह लेने में असमर्थ हैं। कल्पना कीजिये कि एक बढ़े पूरे पेड़ को काटकर उसकी जगह एक पौधे को लगा दिया जाये, और ऐसा ही विश्व के सभी पेड़ों के साथ किया जाये। इन नवीन पौधों को वृक्ष बनने में और वृक्षों की तरह लाभ पहुंचाने में कितना समय लगेगा? इस प्रश्न का उत्तर देने की आवश्यकता शायद नहीं है, यह सबको स्वयं ही विधित है।

अन्य उपयोगों के अतिरिक्त, घने जंगलों का महत्व ग्लोबल वार्मिंग की दरों को सीमित रखने में होता है। ऐसा माना जाता है कि यदि औद्योगीकरण से पूर्व की दरों से तुलना की जाये, तो ग्लोबल वार्मिंग से बढ़ने वाले तापमान को 2 दशमलव सेल्सियस से अतिरिक्त नहीं बढ़ने देना चाहिए, नहीं तो पृथ्वी पर जीवन संकट होने की संभावनाएं बढ़ती जाएंगी। ऐसा भी माना जाता है की 1906 से 2005 तक पृथ्वी का औसत तापमान लगभग 0.74 दशमलव सेल्सियस से बढ़ा है। इस अवधि के दूसरे आधे भाग में यह वृद्धि लगभग 0.13 दशमलव सेल्सियस प्रति दशक के हिसाब से हुई है जबकि पहले आधे भाग में ये दर लगभग 0.07 दशमलव सेल्सियस प्रति दशक थी। इसका यह अर्थ है की ग्लोबल वार्मिंग पहले की तुलना में लगभग दोगुनी तेज़ी से हो रहा है। यदि सम्पूर्ण वैश्विक समुदाय ने इस समय इस विषय पर आपातकालीन रूप से कठिन निर्णय नहीं लिए तो पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व पर ही एक सवालिया निशान लग सकता है।

ग्लोबल वार्मिंग दरों में वृद्धि के पीछे निरंतर बढ़ते हुए प्रदूषण के स्तरों का बहुत बड़ा हाथ है। कुछ आंकड़ों की बात करते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एयर क्वालिटी मोडेल के अनुसार, विश्व की 92% जनसंख्या ऐसे वातावरण में रहती है जहां वायु की गुणवत्ता की दर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा स्थापित सीमा दर को पार कर चुकी है। एशिया में लगभा 65% लोग और भारत में लगभग 25% लोग वायु प्रदूषण के कारण मृत्यु को प्राप्त होते हैं। 80% गुर्दे से जुड़े हुए रोग गाड़ियों से निकलने वाले धुएँ की वजह से होते हैं। यह अनुमान है कि 2050 तक लगभग 6 मिल्यन लोग प्रति वर्ष वायु प्रदूषण के कारण मृत्यु को प्राप्त होंगे। हवा को छोड़कर पानी पे आयें तो कुछ तथ्य सामने देखकर आप भी चिंतित हुए बिना नहीं रह पाएंगे। ऐसा अनुमान है कि लगभग 70% औद्योगिक कचरा जलाशयों में फेंक दिया जाता है। हर वर्ष लगभग 14 बिल्यन पाउंड कचरा, जिसमे से अधिकतम प्लास्टिक होता है, समुद्र में फेंक दिया जाता है। विश्व में लगभग 15 मिल्यन बच्चे हर वर्ष पीने के पानी से जन्म लेने वाले रोगों के कारण मृत्यु को प्राप्त होते हैं। लगभग 80% जल प्रदूषण घर में पैदा होने वाले कचरे को जलाशयों में फेंक देने के कारण होता है। यदि यह अंतिम आंकड़ा सच है तो क्या हम लोग निजी स्तर पर इस विषय में कुछ नहीं कर सकते? अवश्य कर सकते हैं। घर में पैदा होने वाले कचरे से निपटने का सबसे आसान उपाय यह है कि हम उसे फेंकने से पहले दो भागों में बाँट लें – गीला कचरा और सूखा कचरा। गीला कचरा वह जो गल सके जैसे केले के छिलके, सब्जी के पत्ते इत्यादि और सूखा कचरा वो जो गल न सके जैसे प्लास्टिक, काँच इत्यादि। इसमें से सूखे कचरे को बेचा जा सकता है, जिसमें से कुछ को रीसाइकल करने के तरीके उपलब्ध हैं और बाकी को सही प्रकार से डिस्पोज़ किया जा सकता है। गीले कचरे से खाद्य का उत्पादन किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त हम ये अत्यधिक कोशिश कर सकते हैं की प्लास्टिक जैसी वस्तुओं का उपयोग कम से कम करें। इसके अलावा भी हमें हमें अपने निजी जीवन में कठिन परंतु अत्यंत आवश्यक बदलाव लाने की आवश्यकता है। किसी भी प्रकृतिक संसाधन, जैसे पानी, बिजली, इत्यादि, का अकारण ही अत्यधिक व्यय करने से पहले हमें अनेक बार सोचना चाहिए। हमें अपनी जीवनशैली को गंभीर रूप से परिवर्तित करने की आवश्यकता है। अपना सारा ध्यान अधिक से अधिक वस्तुओं को एकत्रित करने के बजाय हमें पर्यावरण के अनुकूल जीवन यापन करने के विषय में विचार करना चाहिए।

भूमंडलीकरण के इस दौर में विश्व में सभी कुछ आपस में जुड़ा हुआ है। सोविएत यूनियन के विघटन के बाद पूरा विश्व एकध्रुवीय हो गया है। इसी के साथ ही विश्व में पूंजीवाद प्रमुख विचारधारा के रूप में स्थापित हो चुकी है। जहां एक ओर बढ़ते औद्योकीकरण के साथ उच्च कोटि का तकनीकी विकास भी निरंतर हो रहा है, दूसरी ओर इस सब के बीच पर्यावरण का निरंतर रूप से दुरुपयोग होता चला जा रहा है। आज हमने अपने लिए स्वयं अपने कार्यों द्वारा ही ऐसी स्थिति उत्पन्न कर ली है कि अगर अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए हम एक स्वस्थ जीवन की कामना भी करना चाहते हैं तो हमें अपने आज की जीवनशैली को महत्वपूर्ण रूप से बदलना होगा। और न ही केवल यह कामना करना पर यह सुनिश्चित भी करना हमारा कर्तव्य है क्यूंकी यदि हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को इस जीवन में लाने के निमित्त हैं तो ये भी हमारा ही परम कर्तव्य है कि हम उन्हें एक स्वच्छ और शुध्ध जीवन प्रदान करें।

हाल ही में 29 अगस्त, 2017 को बहुत से मुंबई वासियों को अपने-अपने कार्यक्षेत्र में ही रात्रि को भी रहना पड़ा था। इसका कारण था यातायात के सभी साधनों का ठप हो जाना, जिसका कारण था तीन-चार दिन से हो रही निरंतर वर्षा। वैसे तो हर वर्ष ही मुंबई में वर्षा ऋतु में मूसलाधार वर्षा होती है, परंतु धीरे-धीरे उस वर्षा की प्रवृत्ति कुछ इस प्रकार की हो रही है कि वह पूरी वर्षा ऋतु में बराबर मात्रा में होने के बजाय कुछ एक दिनों में ही भारी मात्रा में होती है और अन्य दिनों में होती ही नहीं। इससे ऐसा होता है कि बहुत से दिन तो बिना किसी वर्षा के ही व्यतीत हो जाते हैं किन्तु कुछ-कुछ दिन इतनी भारी मात्रा में वर्षा होती है कि पूरा शहर अस्त-व्यस्त हो जाता है। इस वर्ष भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला। इसके कारण होने वाली बाकी सारी असुविधा को यदि हम एक क्षण के लिए भुला भी दें और केवल ये सोचें की वर्षा के इस प्रकार व्यवहार का क्या कारण है तो इसकी मूल जड़ हमें अपने द्वारा किए जा रहे पर्यावरण के साथ खिलवाड़ में ही मिलेगी। मुंबई में समुद्र को चीर कर अधिक से अधिक इमारतें खड़ी की जा रही हैं। पानी के प्राकृतिक बहाव के रास्ते मनुष्य द्वारा बंद कर दिये जाने के कारण उसे अपना रास्ता बदलना पड़ रहा है। उस पर अधिक से अधिक वृक्षों को काटना ताकि अधिक से अधिक इमारतें उनकी जगह ले सकें। इस सब से हर प्रकार के प्रदूषण में अत्यधिक वृद्धि। इस तरह पर्यावरण के प्रतिकूल व्यवहार करने से ऋतुओं का प्राकृतिक व्यवहार भी परिवर्तित हो रहा है, जिसके चलते 29 अगस्त, 2017 जैसे दिन आते हैं जब जान और माल दोनों का भरपूर नुकसान होता है। यह तो केवल एक उदाहरण मात्र है। विश्व में अधिकतम देशों और उनके बड़े-बड़े शहरों को इन मानव जनित समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। क्यूंकी ये समस्याएँ मानव जनित हैं, इन का हल भी मानव समाज के पास ही है, और बहुत ही साधारण सा है – पर्यावरण का शोषण त्यागकर उससे मित्रता।

पर्यावरण संरक्षण एक ऐसा क्षेत्र है जिसके महत्व से शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो अनभिज्ञ हो। इस विषय में और कुछ कहने के बजाय मैं स्वयं लिखित कुछ पंक्तियों के द्वारा अपने इस लेख का अंत करना चाहूंगी:

 

                पर्यावरण संरक्षण कल नहीं आज

       बहुत कर लिया मानव तूने पृथ्वी पर राज

       गर भविष्य अपना सुरक्षित करना की इच्छा है

       तो इसका एकमात्र उपाय पर्यावरण से मित्रता है

       जल और वायु जीवन के मूल आधार

       वस्तुओं से दोस्ती हो सकेगी तभी, जब करेंगे इनसे प्यार

       जो न अभी स्थिति को संभाल पाएंगे

       तो पछताने के लिए भी शायद जीवित न रह पाएंगे

       इसलिए गर खुद के अस्तित्व को बचाना है

       तो पर्यावरण से मित्रता - इसी गुर को बस अपनाना है  

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