Wednesday, 17 January 2018

कुछ बात उन गैरों की


वो कहते हैं जिस सरज़मीं की नींव ही नफ़रतों पर टिकी है उसके वजूद को नापाक कहना ही सच्चा है

हम तो ये ही सोचते रह गए कि उन नफ़रतों के लिए अपनी भी ज़िम्मेदारी से उन्हों ने इतनी आसानी से मुंह फ़ेरा कैसे है

वो कहते हैं कि हमसे मुसलसल जंग-ए-ऐलान करना ही उस क़ौम का मक़सद है

हम तो ये ही सोचते रह गए कि करोड़ों इंसान जाने एक ही मक़सद से ज़िंदा कैसे हैं

वो कहते हैं कि मुसलमान लफ़्ज़ से ही हमें एक गैरियत का एहसास होना लाज़मी है

हम तो ये ही सोचते रह गए कि हर मुसलमान जो हमें मिला इतनी अपनाइयत से मिला क्यूँ है

वो कहते हैं कि अकबर हो या औरंगज़ेब या कि तेमूर ही हो सब एक थे कुचला उन्होने हमें सदियों तक है

हम तो ये ही सोचते रह गए कि जो अपने बताए जाते हैं उनसे इतना दर्द और खौफ़ का एहसास मिला क्यूँ है

वो कहते हैं कि इतनी तेज़ी से बढ़ रहे हैं वो कि दूर नहीं वो दिन जब इस सरज़मीं फिर उनका ही राज होगा

हम तो ये ही सोचते रह गए कि उनकी तो सुकून भरी ज़िंदगी की छोटी सी ख्वाइश भी एक दुआ भर है

वो कहते हैं कि अमन की चाहत तो हमें भी है पर चैन वो कभी लेने ही नहीं देते

हम तो ये ही सोचते रह गए कि चैन-ओ-अमन की दरकार करने वालों के दिलों में नफ़रतों का घरौंदा जाने बसा क्यूँ है..... नफ़रतों का घरौंदा जाने बसा क्यूँ है.....

 

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